छत्‍तीसगढ़ी गज़ल – हमरे गाल अउ हमरे चटकन


हमरे गाल अउ हमरे चटकन

बांध झन बिन गुड़ के लड़वा सिरिफ बानी म
घर हजारों के उजर गय तोर सियानी म।
डहर भर बारूद हे बगरे सुन्‍ना घर कुरिया
जिनगी जीयत हावय जइसे काला-पानी म।
जंग ह जंगल ले सरकत सहर तीर आ गय
लाश के गिनती होवत हे राजधानी म।
रूई जइसे बिरथा गुड़ ल का धुनत बइठे
बैरह होरा भूंजे लागिन तोर छानी म।
हमर किसमत बस लिखे का पसर भर चांउर
देबे कब कुछ अउ सुदामा कस मितानी म।
सांप अउ छुछुवा असन गति हमर होवत हे
बनत हे लीलत न उगलत चकरधानी म।
जउन जइसन बोंथे सिरतों वइसने लूथें
सोंच करगा कइसे हो गया तोर किसानी म।
हमरे गाल अउ हमरे चटकन ‘बुध’ बहुत हो गय
अउ कतेक दिन जीबो अइसन हलाकानी म।

बुधराम यादव
वरिष्‍ठ संपादक ‘गुरतुर गोठ’ 

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3 Thoughts to “छत्‍तीसगढ़ी गज़ल – हमरे गाल अउ हमरे चटकन”

  1. उत्तम अति उत्तम।

  2. Pramod Baghel

    अंतस में उतरगे …..
    कहे बार भाखा नई मिलत हे..
    :: प्रणाम हे…

  3. ramesh kumar chauhan

    ‘हमरे गाल अऊ हमरे चटकन‘ चटकन के का उधार ।
    बत अतका सुघ्घर कहे हमरो मति ल दे हे उघार ।।

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